पीड़ा की तमाम अनुभूतियों के मध्य
तुम्हारे मूक प्रेम की अनुभूति
कर देती है मन को उपवन
जो
मरूस्थल हो गया था
रेत पर प्रेम की नाव खींचते खींचते।
शब्द विह्वल थे!?
और ह्रदय अनुत्तरित!?
भाव घायल
और मन व्यथित
उस धीमी बयार के स्पर्श ने
जो तुम्हे छूकर आ रही थी पूर्व से
कंपित कर दिया देह को
जब रोम रोम दोलित हो रहा था
तब मन के मरूस्थल की रेत भी!
सरक रही थी आहिस्ता आहिस्ता
न जाने कब बारिश ने गीली कर दी
जमीन मन की।
पुष्प खिल गए
मेरे वजूद की जमीन पर
मानो प्रकट हुए हो...
इस मन की अविरल धारा ने
न जाने कब रुख बदल लिया
तुम्हे पता है
धरती के बदलते स्वरूप
बदलती वनस्पतियाँ
उपजते जीव जंतु और नष्ट होते
उस चक्र की निरंतर गति
और निश्चित आवेग जिसे
छेड़ देते है ये मानव
अपनी लालसा से
वासना से
कुछ ऐसा ही तो था
वो मन की धरती का चक्र
ठहर सा गया था
कारण गौड़ है
और विश्लेषण बेमानी
किन्तु अब कुछ उपज रहा है भीतर
आत्मा के आँगन में
तुम्हे खुशी होगी ये जानकार
विवेक भी अब उर्ध्व हो चुका है
और मन सिंचित
प्रेम की वनस्पति का अंकुरण भी
जब यह पेड़ बन जाएगा
तब बुलाऊंगा तुम्हे
इसके मीठे फल खिलाने के लिए
तुम आओगी .....
कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"
(अनायास तो नहीं किन्तु अचानक उपजी कविता। नई कविता!)
Photo&Text Copyright: Krishna Kumar Mishra 2014
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