Saturday, June 14, 2014

किसी को दर्द बांटना है यारों....


वफ़ा के मायने बदल गए यारो
दर्द अब शौक बन गए यारों

आरजुएं है सिर्फ कुछ पल की
इश्क अब खेल बन गए यारों

किसी को वक्त काटना है
किसी को दर्द बांटना है यारों

न रहनुमाई है न साफगोई है
लोग अब झूठ बन गए यारों

आदमी मिलकियत है हरम में उनके
रस्म ओ रिवाज़ अब खो गए यारों

चमन के फूल भी अब किराए के है
बीज माली भी अब गुजर गए यारों

ख्वाइशें भी खरीद लेते है लोग
कुछ झूठ कुछ फरेब से यारों।

किसे कहे मुस्तकिल है अपने वादों पर
यहाँ पल में दिल को बेंच लेते है यारों

गुजिस्ता दौर था जब किस्सा ए इश्क मौजू था
अब हर रोज फसानों के किरदार बदल जाते है यारों

मौसमी इश्क भी हो गया है अब
शहर बदले नए लोग मिल गए यारों

बड़ी बातें बड़े वादों का तरन्नुम है जुबा पर
फर्श पर आकर बदल गए है वो लोग यारों

इश्क के बाज़ार? में जाना मुनासिब है नहीं
यहाँ तलबगार नहीं सब खरीददार है यारों

कृष्ण कुमार मिश्र (सस्ती नज़्म)

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