मेरे उसके कुफ़्र
हमें समझते है वो सब चश्म ए सहरा का मरीज ।
हमने कभी सहरा में भी गुलिस्तान बनाए है ।।
हमारे हाल पे यूँ न तरस ।
हम कई बार गम ए सहरा से निकल आये हैं ।।
मेरे दीवानेपन पर तंज न कर ।
मैंने इश्क में कई ताज बनाए है ।।
वो काफिर निकला इसमें कोई ताज्जुब न हुआ "कृष्ण" ।।
सुना है आजकल मशरिकी भी छोड़ दी उसने ।।
कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"
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