Friday, June 28, 2013

मेरे उसके कुफ़्र



हमें समझते है वो सब चश्म ए सहरा का मरीज ।
 हमने कभी सहरा में भी गुलिस्तान बनाए है ।।
 
हमारे हाल पे यूँ न तरस ।
 हम कई बार गम ए सहरा से निकल आये हैं ।।
 
मेरे दीवानेपन पर तंज न कर । 
मैंने इश्क में कई ताज बनाए है ।।
 
वो काफिर निकला इसमें कोई ताज्जुब न हुआ "कृष्ण" ।। 
सुना है आजकल मशरिकी भी छोड़ दी उसने ।।
 
कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"
 
 

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