तुम्हे तो खुद पे एतबार नहीं मेरे वजूद पर सवाल करते हो
ज़रा देखों मेरी जानिब तुम तो मुझसे ही प्यार करते हो.
समझ में क्यों नहीं आता हमारे वजूद पर कीचड उछालने वालों
हम फलक के चाँद है अंधेरों में रोशन जहां को करते हैं.
दिल में साफगोई न हो तो इश्क की बात मत करिए
फरेब से किसी को अपना बनाने की बात मत करिए .
चलो मिलने मिलाने की ये कवायद ख़त्म करते हैं.
बहुत हुआ मोहब्बतों का ये खेल इसे अब बंद करते हैं .
वो इलेक्ट्रानिक दरीचों से झांकती है मुझे हरदम।
मेरी जिद है की वो अपने घर की खिड़की में नज़र आये.
हमें मालूम न था की अल्लाह ने कुछ रूहानी सिफ़त दी है मुझे।
जहन को मेरे आब ए जमजम सी सिफ़त दी है मुझे।
बस रूह मेरी अब तिलमिला उठी है कुफ्र वालों से।
जो भी आता है पाक होता है और अपने मैल छोड़ जाता है।
मैं रफ्ता रफ्ता उसी का हो रहा था।
मगर वो अपने कुफ्र मुझमें धो रहा था।
किसी की चाह में खुद को भुला देने की नीयत आसमानी हो गयी है
इश्क में ताज बना देने की वह कहानी अब पुरानी हो गयी है .
तू याद आती है तो कुछ पुराने गीत याद आते है।
जो गुनगुनाएं थे कभी जब हम साथ साथ थे।
उसकी याद ने जब जब जहन में अंगड़ाई ली।
मेरे चश्म ए तर में तब तब आंसुओं ने डेरा डाला।
कृष्ण खुश होने के लिए ख़्वाब का सब्ज़ बाग़ अच्छा है.
किसी को खोकर किसी को पाने का यह ख़याल अच्छा है.
कहानी रुख बदलती है तो दिलों को दूर करती है।
नदी जब रुख बदलती है तो जमीं तक्सीम करती है। कृष्ण
नहीं समझे अगर अब भी तुम अफसानों के नकली ढंग
तो मत कहना की मंजिल दूर है अब दम निकलती है।
मौका परस्ती हमने भी सीख ली तुम्हारे साथ रह कर।
वरना हम किसी हाल में हो गुजारिश नहीं करते थे कभी।
बेवजह मुस्कारने की बात पूँछी थी।
दिल लगाने के सबब में जवाब मौंजू है।
वो जरूर फर्क समझ जाते नफ़रत और मोहब्बत में।
अगर उन्होंने दिल दिमाग के फासले की पैमाइश की होती।
दर्द में मुस्कारने की अदा हर किसी को नहीं आती।
जो मिटा नहीं किसी पे उसे बेवजह मुस्कारने की अदा नहीं आती।
जिन्हें इश्क की सिफत नहीं मालूम
वो बेवजह मुस्कारने का सबब पूंछते है।
इश्क के गुजिस्ता दौर में जब कहानी ने रूख बदला।
तभी से हमको बेवजह मुस्कारने की आदत सी हो गयी।
कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"
बड़ी अजीब है लोगो की फितरत यहाँ कृष्ण
चोट किसी और से खाते हैं देते किसी और को हैं.
...........................................
ज्ञान की उन्नति के साथ परिभाषाये भी बदलती है पर बिना पहली वाली परिभाषा के दूसरी परिभाषा कैसे संभव। कृष्ण
वक्त तो स्थिर है वत्स वो न आता है न जाता है बस जरूरत है वक्त को तुम अपना कब बना पाते हो। कृष्ण
No comments:
Post a Comment