Monday, March 3, 2014

कि मक्का और काशी भी एक हो जाए




नियत पाक और खुदा की नियामत हो जाए।

सारी कायनात में तेरी आरजुओं के दरीचे खुल जाए। 


सोचता हूँ अब उसकी बन्दिगी की जाए।

शायद मेरी भी एड़िया इस्माइल (अलै.) सी एड़िया हो जाए। 



जहां रख दूं पाँव जमीं के दामन पर।
वही से आब ए जमजम की धार छुट जाए।  



वो चाहेगा तो ख़त्म कर देगा सारे दरमियाँ
कि मक्का और काशी भी एक हो जाए।  



अभी वक्त है इंतज़ार करो कुफ्र वालो बस क़यामत तक।
देखिएगा उस ऱोज मोहम्मद भी राम हो जाए।  

अभी वक्त है कायनात के कफ़स में काफिरों का।
वक्त आने दो तब उनका भी हिसाब हो जाए।


कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

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