Sunday, June 26, 2011
और प्रादुर्भाव हो बस प्रेम का....
एक कविता जो उसके लिए है !
- कृष्ण
तेरे जीवन के सुखद नववर्ष का आरम्भ हो ।
तिलमिलाती जिन्दगी में एक नया एहसास हो ॥
सूर्य की पहली किरण स्पर्श कर जाए तुझे ।
आभा अलौकिक सूर्य की मुख पर निखर आये तेरे ॥
चांद-तारों, की तरह तेरा प्रयोजन हो सदा ।
घोर अधियारे में हमेशा तू चमक जाए सदा ॥
शब्द निकले प्रेम के जब-जब खुले तेरे अधर।
सत्य की ही राह हो जिस तरफ़ हो तेरे कदम ॥
तेरे ह्रदय में ज्ञान का हो प्रज्ज्वलित दीप ऐसा।
विषमतायें समस्यायें निराशायें दूर हों।
सहजता हो नम्रता हो और हो करूणामयी।
धर्म और सभ्यता से सदा मड़ित रहे॥
मनोबल और भावनाओं में ऊँचाई हो शिखर सी।
अभिव्यक्ति हो भावों में सदा स्नेह की॥
रक्त-रंजित और प्रदूषित इस धरा की मलिनता को।
धैर्य की प्रति-मूर्ति बनकर दूर कर दो सौम्यता से॥
इक छटा सी बिखर जाए लालिमा की।
और प्रादुर्भाव हो बस प्रेम का ॥
कृष्ण कुमार मिश्र
krishna.manhan@gmail.com
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Friday, March 4, 2011
एक उलझी हुई कविता एक उलझे हुए मस्तिष्क से !
©Krishna Kumar Mishra |
उलझी हुई कविता-
कुछ बेतरतीब शब्दों की माला
-कृष्ण कुमार मिश्र
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बात वह नही थी जो मैं कहता हूं आक्रोश में
जो उपजता है, मेरे उस अनुरोध से
जिसे तुम नकारती हो हमेशा
वर्ष महीने, दिन सप्ताह
मेरी अनुनय-विनय का प्रतिफ़ल थे वे शब्द
जिन्हे आरोपित किया था तुम पर
बड़े प्रेम से
आक्रोश से
शर्म से
और कभी कभी जलालत से
स्वयं में लज्जित हुआ
तुम्हे व्यथित किया
दुखों की उन पराकाष्ठाओं के साथ जिया
जो डूबी थी तुम्हारे प्रेम में
आभास नही था कि तुम्हारे उस ताने-बाने का जिसमें तुम उलझी थी
या खुद को भान नही होने दिया उस जाल का
जो उलझाये था मेरी सभी पवित्र भावनाओं को
छटपटाहट में भावनायें उलझती ही नही थी उस जाल में
टूट कर बिखर भी जाती थी
जिन्हे चुनता था, चुनता हूं
अश्रुपूरित नयनों से और सहमें हुए मन से
डरी हुई आत्मा से
कभी सुना है तुमने
कि आत्मा भी डरती है क्या
भावनायें टूटती है क्या
पर ऐसा हुआ है
तमाम बार
बार बार
मेरे उस प्रेम में
जो उलझा हुआ है
उस जाल में
उस ताने-बाने में
जो करूण है
रौद्र भी
जो पवित्र है
और कलुषित भी..
जिसमें वेदना आरोहित है
इस आरोहण के मध्य है
प्रेम
जो हरदय की धड़कन नापने वाले यन्त्र में भरे पारे की तरह
ऊपर चढ़ता है
और फ़िर नीचे आ जाता है उस बिन्दु पर
जो मूल था हमारे प्रेम का
उस आधार बिन्दु पर गिरा हुआ अपने को
अभागा
बहका हुआ
पतित..
और दुखी पाता हूं
सदैव
लेकिन फ़िर
चढ़ता हूं
उस बेदना के साथ जो आरोहित है तुम पर
उसी आरोहण की तरह
मैं
भी चाहता हूं
आरोहित होना
किसी ऊंचे दुर्ग पर लहराते हुए केशरिया झंडे की तरह
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कृष्ण कुमार मिश्र
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