Wednesday, February 26, 2014

तब से आँख ने खारे पानी के समन्दर की शक्ल ले ली।



बहुत अज़ीज़ थे तुम मेरे हबीब थे तुम 
दौर गुजरा तो तुमने दुश्मनी का रिश्ता भी न मुनासिब समझा



फिर न कहना की देश की हालत खराब है 
तुमने जो महज़ कुछ सिक्कों के लिए बेखुदी चुन ली



आरजुएं भटकती है मुर्दों के आस पास 
तमन्नाओं ने ज़िंदा लोगों को ज़िंदगी दी है



इश्क अब पुराने दिनों की बात है कृष्ण 
जिस्म के बाजार ने जज्बातों की तहोबाला कर दी



इश्क के बाज़ार में हम रोज़ सैर करते है 
बड़े करीने से लोग कहते है की हम सिर्फ तुमसे प्यार करते है.



तू न होती तो ये किस्से तमाम न होते 
तेरे बगैर इश्क के हम इल्मदार न होते .



यहाँ ताल्लुक के लिए भी व्यापार होता है।
हमें इल्म न था हम तो जमीनों में जिंदगियां उगाते हैं।



तेरी याद में जो बोये थे बीज हमने।
वो दरख़्त बनकर नए बीज देने लगे हैं। 



तेरे भी अश्क गिरे थे मेरे अश्कों के साथ साथ।
चलो चले उस जगह पर इक पेड़ लगाया जाए।



चलो चले उस दश्त के शहर कुछ खोजा जाए।
कहीं तो सहरा की रेत आज भी मेरे आंसुओं से नम होगी। 



कुछ लोग बड़े अजीब होते है।
होते रकीब है पर दिखने में अजीज होते है।



तुझसे मुसलसल ताल्लुक की तमन्ना ही रह गयी।
तुम्हे तो फकत कुछ ख्वाईशों को उरूज़ देना था। 



वो लम्हात कई सदियों का इंतज़ार लगते थे।
पर तेरे आने की आस में वक्त सरकता बड़े मज़े से था।



जब से मुस्कराने के सबब छीन लिए उसने।
तब से आँख ने खारे पानी के समन्दर की शक्ल ले ली।



इश्क तो लम्हात की कहानी है।
तमाम मसायल में सारी उम्र को गर्त होना ही था। 



उसने देखकर मेरी जानिब सिहर कर नज़र फेर ली थी।
मेरी आँखों में जो प्यार की सुनामी उमड़ रही थी। 



तेरे जाने के बाद हमें साये भी डराने लगे 
तू साथ थी तो परछाईयों का ख़याल किसे था.



उस यकीन के टूटने की चटक यूं जज्ब हो गयी जहन में 
अब तो हर एक आहट पे खौफ खाता हूँ .



उसे खोजा हर तरफ उस नकाबपोशों के शहर में 
दश्त में जिधर देखता था वही नज़र आती थी 



दिले मासूम का इरादा तो नेक था 
हज़ार राह में आये पर नज़र में वही एक था



खौफ खूबसूरत होने का है या दिल में कोई मलाल है 
लोग चेहरों पर मुख्तलिफ चेहरे लिए फिरते है



गुज़री हुई चीजों से एहतराम क्या करना।
जो खो गया हो उसका इंतज़ार क्या करना।



तेरी आस में तेरे सहरा में भटका हूँ पागलों की तरह।
सोचा था की आँचल से पोछेगी तू पसीना मेरे माथे का । 


कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

रिश्तों की अवधारणा के पीछे सबसे बड़ी वजह रही होगी स्त्री पुरूष के संबंधों के बीच मर्यादा की स्थापना।।। नहीं तो समाज की परिकल्पना ही असंभव होती। कृष्ण



























Sunday, February 23, 2014

तुम हमारे बगैर दिवाली की राह तकते हो।



कुछ शेर जो ग़ज़ल के टुकड़ों की मानिंद पेश ए खिदमत है। सभी मोहतरम और मोहतरमा हौसला अफजाई जरूर करे ताकि ये टुकड़े मुकम्मल ग़ज़लों में तब्दील हो सके।


हम मुस्तकिल है ऊंचे दरख्तों की तरह जिनकी जड़े धरती को जकड़ लाती है। 
जिन्हें टिकना नहीं है इक मुकाम पर उनकी जड़े गमलों में कसमसाती है।

अब तो लोग दरख्तों को गुलामी दे रहे है
पीपल बरगद को तसले में कैद कर रहे है।


वो लोग जो खुद को बड़ा कहते रहे।
करीब गया तो वहां बोसनाई मिली।


चोट कैसी भी हो जब दर्द भी घबरा जाए
इश्क ऐसा हो की पत्थर में भी घाव कर जाए।


इश्क के खेल में कुछ भी मुस्तकिल नहीं होता।
कभी दिल चटकता है तो कभी नसीब फूटता है।


और भी चेहरे है जनाब के।
ज़रा हिजाब तो उठाओ यारो। 


आप को रखना नहीं मुझसे वास्ता कोई तो कोई बात नहीं।
तामाम कुफ्र दिल में रहते है तो मोहब्बत की कोई बात नहीं।


तुझे देता हूँ दरिया सी रवानी समंदर सी गहराई 
फिर न कहना की तुम उथले थे सो बहते चले गए..

 (बड़ा विरोधाभाषी ख़याल है..किन्तु पूरक है एक दूसरे से ...समझिएगा संभल कर ...)


हमारे इश्क की वो कहानी जो वही पर रह गयी थी 
बचा था जो उसे दरिया समंदर के हवाले कर रही है 


कहाँ मिटता है कुछ भी जो लिखा तुमने मोहब्बत में 
पेड़ पौधे हवा पानी सभी वो गुनगुनाते है


घर की चौकठ का भी सज़दा करते है हम 
उन्हें! मालूम ही क्या खुदा रहता कहाँ है .


बलंदी आजकल सस्ते दामों में मिलती है 
मगर इस शर्त पर की वो बे बुनियाद होगी.


चलो बुनियाद के पत्थर को सलाम कर लिया जाए
इमारत ढह गयी है मलबे की ईंट को मंदिर में रख लिया जाए


गुजिस्ता दौर के किस्से अजीब थे
अब जो रकीब है तब वो हबीब थे ! 


अब्र के टुकड़ों को चांदी समझ बैठे है लोग 
कुछ जोकरों को गांधी समझ बैठे है लोग ..


तू रोया तो अब्र रोया 
बूँद में बस फर्क खारेपन का था 


एखलाक की उम्मीद में उम्र गुज़र गयी
बाजारू मोहब्बत में हम बिकते चले गए.


बड़े बेमुरब्बत है लोग यहाँ
बिना जरूरत के पहचानते नहीं


मोहब्बत क्या है मुझे इल्म नहीं
बस तेरे होने की शिनाख्त है मुझको .


मुझे नहीं मालूम इश्क क्या है 
मेरा तो सिर्फ तुझसे वास्ता था


अल्फाज़ वो जरिया है जो एहसासों को वजूद देते है 
तुमने झूठे एहसासों के लिए अल्फाजों की बेइज्जती की है.

दूरियां थी मगर हम दूर न थे तब तक 
जब तक तूने मुझसे बेईमानी न की

किसी ने फायदे के सिवा कुछ भी नहीं चाहा 
एक हम थे जो जानकार भी ठगते रहे .

ज़िंदगी में दौर ए सिलसिला इस तरह आया 
लोग बस फ़ायदा उठाते चले गए 

तेरी बेवफाई का सबब पता है मुझको।
फिर क्यों तुम खुद को कोसती हो।

तेरे न होने का कोंई सवाल नहीं।
तुम तो मेरी ही इबारत हो।

चाँद के बगैर शबनम रौशन नहीं होती।
तुम हमारे बगैर दीवाली की राह तकते हो।

शेर के अक्स में भेडिये घुस तो आये है।
पंजों के निशानों ने जमीं को इत्तला कर दी।

वक्त की सिफ़त है गुज़र जाना
इश्क में रूकने की हिदायत है।

इश्क लम्हों में गिना जाता है।
तुम वर्षों की बात करते हो।

नस्ल की बुनियादी समझ जरूरी है।
हरामखोरों की तस्दीक भी जरूरी है।

कुछ बेवजूद बेमुरब्बत कुफ्र वालों से वास्ता हो गया मेरा।
खुद को तौला तो खुद ही पे शर्मसार हुआ।

बसंत फिर आकर चला गया 
तेरा ऋतुओं से भी वास्ता है !

वो लोग जो इश्क में रस्म ए रवादारी की बात करते है।
जो मोहब्बत की इब्तिदाई किताब को रद्दी की दुकाँ पे बेंच आये है। 

उन्होंने होश ओ हवास में मेरी मोहब्बत की तहोबाला कर दी।
हम होश खो कर भी इश्क की हर रस्म निभाते चले गए। 

इतनी मिलती है उस चिड़िया से सीरत उसकी।
जब भी मिलती है तो चोच लड़ाती है वो। 

तुझे पाना जो मेरा नसीब था

तेरा हिज्र भी तो अजीज है।

तू नहीं है जो मेरी हयात में
फिर भी तू दिल के करीब है

हर कहानी का सबब होता कहाँ है खुशनुमा।
एक दिन हम भी हँसे थे पहली दफा जब तुम मिली थी।

आँख में रहती नमीं थी जब हम दोनों साथ थे।
कम से कम अश्कों को अब थोड़ी मोहलत तो मिली है।

गम जुदाई का नहीं अब सालता होगा तुम्हें
रिश्ते दरकने से हमें बदले में ये राहत तो मिली है।

रात दिन की वो तड़प मिलना तेरा फिर दूर हो जाना।
मेरी जाँ चलो छोड़ों दिलों जाँ को अब फुर्सत तो मिली है।


भूख से बेहाल बच्चों की जरूरत है फकत कुछ रोटियाँ
इल्मदारी चुटकले और खिलौने ये सभी बेकार है।


पेट भूखा मगज़ सूखा ये हालात है हिन्दूस्तान के।
आप कहते हो की हम कायदे आज़म है इस कायनात के।


तेरा करम हुआ तो तुझे तेरी कसम दुनिया को बनाने वाले 
तेरी कायनात की खिदमत में इक दिन बड़ा नाम करूंगा.


मुद्दतें गुजर गयी उससे रूबरू हुए ।
मगर ख़्वाबों में हर ऱोज मिला करता हूँ।


मुसलसल चाह में तेरी दरिया सी रवानी है।
फकत बस चंद बांधों ने तेरी रफ़्तार कम की है।


प्रेम की कोई मुक़र्रर तारीख नहीं होती।
महसूस करो ये तो लम्हों का मामला है।


मोहब्बत दिलों में नहीं अब बाज़ार की चीज हो गयी।
इस मुसलसल ज़ज्बात की भी इक तारीख हो गयी।


मुस्तकिल रिश्तों की अब बुनियाद खो गयी।
इश्क की भी मुक़र्रर इक तारीख हो गयी।


दर ओ दीवार में उग आये है मुख्तलिफ़ दरख्त।
हम तो वीराने में है मगर चिड़ियों ने गुलज़ार कर रखा है घर।



कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"









Friday, February 7, 2014

चलो चले उस चिड़िया को हंसाया जाए...



गौरैया तुझे जब देखता हूँ अपने आँगन में 
तो उसके घर में तेरा वो नशेमन याद आता है. 



उसने दिखाया था तेरा वो घोसला जो उसके उस मकान में था 
तू मेरे घर को मुस्तकिल नशेमन बना ले तो मुझको तसल्ली हो. 



गौरैया तुम रेत में घरौंदे क्यों बनाती हों जो बिखरते है हल्की बयार से.
चलो आओ माटी के घर अब भी तुम्हारा इंतज़ार करते है.



उस चिड़िया की चहचहाहट सुने हुए मुद्दतें गुज़र गई.
दूर से आती हुई उसकी सिसकियाँ मुझे अब सोने नहीं देती. 



चलो चले उस चिड़िया को हंसाया जाए 
सूने से चमन को गुलिस्तान बनाया जाए. 


 कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"







तूने जब हाथ छुडाया तो भनक भी न लगी...




मैं न भूला तुझे न तेरी आशनाई को।
इम्तहां लेना हो तो तेरी राहों में मिले गड्ढों की तादाद गिना दूं। 



उन दरख्तों से बड़ी हमदर्दी सी हो गयी है।
जो तेरे घर की राहों में मुझे मिलते थे।



शायरी झूठ नहीं पर सच भी नहीं है मेरी।
तेरे जाने से फकत अब धूल ही है राहों में।



तेरे शहर के गुलाबी मौसम की कसक।
तुझे पहले की तरह याद करा जाती है ।



उन नजारों की नज़र आज भी इंतज़ार करती है।
तुम्हारा मेरा वो जगह अब भी इंतज़ार करती है। 



तेरी फितरत तो थी कई हमराह बनाने की।
एक हम थे जो तुझे ही मुस्तकबिल बना बैठे थे। 



तुझे चाहा था खुदा को भी इतर रखकर।
तूने तो हम दोनों की तहोबाला कर दी।



मुतमईन था मैं तेरे साथ को हासिल करके।
तूने जब हाथ छुडाया तो भनक भी न लगी।



तेरे पहलू में सुकूँ की आरजू थी हमें।
तूने खराब वक्त में दामन छुडा लिया। 



उसके पहलू में अजीब सी दिलकशी थी।
दामन पकड़ के सोया था सुबह वह ही नदारत थी। 



मेरे माथे पे इक निशाँ जो मुस्तकिल हो गया.
ये तेरे प्यार की इक पुख्ता निशानी है. 



उसने यूं गर न तोड़ा होता मुझको.
तो दुनिया की मुझे यूं न जरूरत होती, 



कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"















तुम हुआ करती थी तब तो ऐसा न हुआ कभी।


बदल सको तो खुदपरस्त से खुदा परस्त हो जाओं। 
वरना जिन्दगी का कोइ मुकम्मल फ़लसफ़ा नहीं होगा। 


तुम्हारे होने को ही कायनात मान बैठा था।

तुमने मुहं फेरा तो हम कहीं के न रहे।



दुनिया के मसायल में डूबा हुआ था कृष्ण।

तुम से राफ्ता हुआ तो दुनिया ही खो गयी।



बड़ी थकन सी है अब जिस्म ओ जां में कृष्ण।

तुम हुआ करती थी तब तो ऐसा न हुआ कभी।


कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"




दरमियाँ इनके अब वो खूनी लकीरे गढ़ रहा है....



हम है बाशिंदे जमीं के इस पे शक हो रहा है 
तरक्की के लिए इंसान बहसी हो रहा है

धरती की पैदाइश है फिर भी बाँझ उसको कर रहा है 
भूल कर अल्लाह को खुद ही खुदा वो हो रहा है 

उन दरख्तों उन परिंदों जिनसे साझा था कभी 
दरमियाँ इनके अब वो खूनी लकीरे गढ़ रहा है 

सब का बराबर हक था उसकी हर नियामत पर 
अब तो बस सब कुछ जबरियन आदमी ही ले रहा है 

कत्ल कर डाला सभी को सदियों से जो इसके साथ थे 
जो बचे उनको भी ऐयाशी की खातिर बस गुलामी दे रहा है 

न रंज है न अफ़सोस है इनको अपनी हरकतों पर
खुद से खुद को दरअसल इंसान धोका दे रहा है 

रफ्ता रफ्ता वक्त आता जा रहा है क़यामत का 
जिसे उसने(ईश्वर) नहीं भेजा अभी इंसान दस्तक दे रहा है 

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

हम इकबाल के अल्लाह को हर सुबह गाते है...



तुम मुझसे न सही मेरे अल्फाजों से राब्ता रखना।
आना अगर जानिब मेरी तो सिर्फ मुझसे ही वास्ता रखना। 



एहतराम है तो एतबार की गुंजाइश भी है 
मैं हूँ तो तेरे होने की ख्वाइश भी है .



जहां में इश्क है तो एहतराम लाजिम है 
वरना इंसान तो नफ़रत के सामान लिए बैठा है .



इनायत करे खुदा तो मयस्सर सारी कायनात होगी 
न जाने फिर भी क्यूं आदमी आदमी को सजदा करता है 



वो शिद्दत की बात करती थी और मुद्दत का भी जिक्र 
ये इश्क के लिए था या फकत जिस्म के लिए .



हम तो आये ही थे इस जहां में खुशियों को बाटनें.
खुद को पता नहीं था की एवज में गम से ही राब्ता होगा



लोग जुड़ते हैं जुदा होते हैं ये किस्से तमाम होते हैं.
जो बचता है दिलों में वो बस कुछ फूल तो कुछ काँटों के निशाँ होते है .



बिना जिस्म के रूह कुछ भी नहीं।
यही वो अक्स है जो रूह को झलकाता है। 



वो रहती है मेरे साथ हरदम मैं जहां भी रहता हूँ। 
लोग गफ़लत में होते है की मैं अकेला हूँ ।



बड़ी मुद्दतों से इंतज़ार था तेरा ..
खुद से खुद का करार था मेरा .




उसने भेजा था हमें धरती की तीमारदारी के लिए 
हमने उसे अलग किया और खुद ही मोहतरम बन बैठे.



अल्लाह की इस रहगुजर में न तू तू है न मैं मैं .
गुजरना है सही से तो तू खुद को खुदा की नजर कर दे 



मुल्क की मिल्कियत का ख़याल किसे है 
यहाँ हर शख्स खुद को बेंचता फिर खोजता भी खुद को है



तुम्हारा मुझ से जुदा होना बड़ा ही बेखयाली था 
जब अलग होते थे तो खुद को भूल जाते थे .



वो राहें वो जगहें वो मंजर तुझे तो याद ही होंगे 
जहां हम तुमको पाते थे तुम्ही को खो के आते थे.



तुझे तो याद ही होगा मेरा तुझ पे ही मिट जाना 
कभी खुश तो कभी बेजार हो जाना .



तेरे वास्ते हमने खुद को मिटा दिया 
एक तू थी जिसने मुझको भुला दिया ..कृष्ण (एक सस्ता शेर)



फकत कुछ रोज की ज़िंदगी है मयस्सर मेरे दोस्त 
तू सोचती है क्या मैं हमेशा तुझे एहतराम करूंगा .




तेरी सीरत पे कभी शक न हुआ मुझको तब तलक 
जब तक तूने मेरे इश्क की जगहंसाई न की .



याद है तुझको तेरे वो वादे जिनमें तूने मुझे सबकुछ कहा था 
अपना हिस्सा अपनी किस्मत व् रंगों में बहता खून कहा था 



हमने तो निभाये तेरे खून के रिश्तों को भी अपनों की तरह.
जब मुझको जरूरत थी तेरी तो तूने महज़ कुछ लफ्ज़ कहे 



दांव पर जान और इज्जत रखके हमने तो फकत तुमसे मोहब्बत की थी.
तुमने जो साथ दिया वो तो महज जिस्म से बावस्ता था .



मेरा तो बस गाँव नहर बाग़ से ताल्लुक था कृष्ण 
तुझसे मिले तो बाज़ार की कीमत समझी ...



तेरे जिस्म व् रूह दोनों से मोहब्बत थी हमें 
तूने तो सिर्फ जरूरत को तवज्जो दी थी ..



तेरे अंजुमन में आये हम बार बार।
ये अलग बात है की तूने हर बार तख्लिया कर ली। 


हम तो जीते है कमजोरी के अहद में आजकल,
उनका क्या जिनके पास कदमों तले खुद की जमीन नहीं 


तुर्क अफगानों अरब के उन लुटेरों की नस्ल कायम है इस मुल्क में 
आप खुश हो इसलिए की फिरंगी जा चुके है देश से.



बंदेमातरम कहना भी उनकों रास न आया 
हम इकबाल के अल्लाह को हर सुबह गाते है 


कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"