Tuesday, May 25, 2010

माँ से यही तो मांगना है!

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एक  स्तुति जो मेरे ह्रदय में कभी उपजी थी


सरस्वती वन्दना-

हे माँ

विद्यावरदायिनी

वीणा पुस्तकधारिणी

मुझे सदज्ञान दो।


सदा जीवन के पथ पर सतमार्ग दो।

सदा हम ज्ञान के पथ पर चले।

ऐसा हमें वरदान दो॥


सदभावना सत्कर्म और सत्संग को प्रेरित रहें।

सदा मानव जाति में अध्यात्म से पोषित रहें

सदमार्ग में आये अगर बाधा कोई

फ़िर भी कभी सतमार्ग से विचलित न हो॥


हे माँ..............

हे माँ मुझे ज्ञान से विज्ञान से पोषित करो

मस्तिष्क में तुम ज्ञान दो शिव की तरह

जीवन के पथ पर कर्म दो तुम कृष्ण का

आदर्शता दो तुम हमें प्रभु राम की॥


हमको विलक्षण ज्ञान की तुम ज्योति दो

इस ज्योति से कर दू प्रज्ज्वलित धर्म को

ऐसा मुझे अभ्यास दो॥

सभ्यता जीवित रहे मुझ में सदा

ऐसा मुझे वरदान दो॥

(यह रचना मैने अपने पिता स्व० श्री रमेश चन्द्र मिश्र जी के कहने पर उस वक्त लिखी थी जब मैं स्नातक का छात्र हुआ करता था, यह १९९८ के किसी दिन की घटना है, जब ये महान शब्द मेरे मस्तिष्क में उपजे, ये शब्द मुझे इतने प्रिय लगे कि आज तक इस रचना को मैने प्रकाशन के लिये नही भेजा, शायद ये मेरे लिये मेरी सर्वोत्तम कृति रही हो, आज मैं इस दैवीय आराधना व स्व-निर्माण के लिए प्रेरित करने वाली रचना को एक प्रतिष्ठित पत्रिका को भेज दिया है।)



कृष्ण कुमार मिश्र
१- ग्राम- मैनहन पोस्ट-ओदारा
जिला-खीरी
उत्तर प्रदेश

२- 77, शिवकालोनी कैनाल रोड, लखीमपुर खीरी-262701

सेलुलर - 09451925997
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बूढ़ा नीम- तृतीय खण्ड

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बूढ़ा नीम- तृतीय खण्ड
(रचना काल- २७ जुलाई २००५)
यह बूढ़ा पेड़
इसकी मौजूदगी में मैं बढ़ा
तरूणाई से जवानी तक
जब मैं छोटा था
इसकी खाल का चिफ़्फ़ुर
घिस-घिस कर लगाता
कटने और जलने पर
आज जब अंग्रेजी मलहम लगाता हूं
तो याद आ जाता है
नीम के पेड़ का वह स्नेह
जो औषधि के रूप में
परिलक्षित होता था

पता नही क्यों मैं जान नही पाया
वे चिफ़्फ़ुर लक्षण थे मृत्यु के
या फ़िर निरमोही हो गया था
यह वृद्ध वृक्ष स्वंम से!
या ऊब चुका था भौतिकता से
या यह सत था लम्बी उम्र का
साधना का
जो लाभान्वित कर रहा था
औषधि के रूप में
या फ़िर प्रसाद था यह!
अन्दर से खोखला हो चुका वृक्ष
जिसकी खोह में मैं छुप जाया करता था
चोर-सिपाही के खेल में!
अब एक शाखा भी सूख चुकी थी
मैने कटवा डाली वह..............
शाखा इस भय से
कही यह वृक्ष धराशाही ना हो जाय इस बोझ से
मै अपराध बोध सा महसूस करता हूँ
पर सोचता हूँ
अनचाहा घातक अंग
अलग कर दिया मैने
किसी डाक्तर की तरह
एक हरी-भरी विशाल शाखा के साथ खड़ा यह वृक्ष
और इसका कटा हुआ रूण्ड
फ़िर पल्ल्वित होने लगा
कुच हरी-भरी कोमल शाखाये
मानो कह रही हैं!
जीवन जटिल व कठिन है
जो कभी नष्ट नही होता है
रूप बदल जाते है!
और आकार भी!

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-262727
खीरी
भारत
09451925997


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बूढ़ा नीम- द्वितीयखण्ड

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बूढ़ा नीम- द्वितीय खण्ड
यह बूढ़ा पेड़
मुझे स्मरण कराता है

कुछ बाते बचपन की
सावन में उन झूलों की
इसकी शाखायें
झुलाती थी मुझे
ले जाती थी दूर
कल्पनाओं के संसार में
पहले कुश से बटे जाते थे ये झूले
फ़िर सनई और बाद में प्लास्टिक
और अब सब खत्म हो चुका है
शाखायें है पर सूखी कमजोर सी
कुछ इतना नीचे
या फ़िर मैं बड़ा हो चुका हूँ
सब कुच अटपटा सा हो गया है
सोचता हूँ तो सिहर जाता हूँ
पर यादें तो यादें है!
कुछ याद दिला ही जाती है
कभी रूलाती है
तो कभी हंसा जाती हैं
पर मस्तिष्क पर छोड़ जाती है
एक गुबार सा
अगले पल मैं फ़िर जुट जाता हूँ
अपने उसी चिर-परिचित कर्म पथ पर
यादें लिए उस बूढ़े पेड़ की
इस प्रार्थना के साथ
यह जिए मेरे साथ और मेरे बाद भी
देता रहे जीवन सन्देश-
अन्त से अनन्त तक!

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
खीरी
09451925997

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बूढ़ा नीम

बूढ़ा नीम -
(प्रथम खण्ड)  रचना काल मध्य रात्रि १४-१५ जुलाई २००५- लखीमपुर खीरी
मेरे घर के सामने नीम का पेड़
सदियों से खड़ा है! वही पर है
जाड़ा गर्मी, बरसात बार-बार आते है
मौसम यूँ  ही बदलते रहते है
नन्हे-नन्हे फ़ूल खिलते है
निमकौरियां फ़लती है
माँ कहती है
नीम का तेल बड़ा गुड़ी होता है
बरसात में फ़लती निमकौरियां
जमीन पट जाती
भिनभिनाती मधुमक्खियां, डिंगारे! भी
मैं बीनता इन्हे, खा भी लेता
मैं बड़ा होता गया
नीम बूढ़ा होता गया!
पेड़ की जड़ पर कुछ पत्थर रखे थे
जिन्हे मैं पूजता था
बूढ़ा नीम कुछ-कुछ मानव की आकृति लिए था
सो उसे मै भवानी माँ कहता था
लोग आते-जाते गये कि नीम है अकड़ा सा खड़ा है
सदियों से!
पर अब वह भी बूढ़ा हो चला
कुछ शाखाये सूख चुकी है,
कुछ गिर भी गयी
जैसे मेरे अपने मुझसे दूर हो गये
एक-एक कर
वैसे ही नीम खोता गया अपना
एक-एक अंग
एक परिवार की तरह
अपनो को खोने का एहसास होता है मुझे
ह्रदय विदारक कूह सी उठती है
पर चीख में तब्दील नही हो पाती
जिनकी गोद में खेला न जाने कितने बरस
जिनसे चलना सीखा
बोलना खाना और पढ़ना
उनसे बिछड़ना और बिछड़ने की याद
जमीन खिसकती है पैरो तले से
दर्द से चाती फ़टती है पर आंसू नही निकलते
क्या यही एहसास होता होगा
इस नीम को जो इतना खोने पर भी
तना अकड़ा सा खड़ा है!

या फ़िर मुझ से कहता है
कि यही दस्तूर है दुनिया का
प्रारम्भ फ़िर अन्त
जन्म फ़िर मृत्यु
क्यूं असमजंस में है
मगर मुझे डर है
कि कही यह पेड़ गिर न जाये
गिर गया तो सब खत्म हो जायेगा
यह भय मुझे झकझोर जाता है
सब बतलाते है यह तो प्रकृति का नियम है
पर यह कैसा नियम
अपने खो जाते है कुछ दूर अनजानी सी जगह
फ़िर भी हम जीते है कुछ मरे हुए से!
पर जीने के लिए फ़िर जुट जाते है
इसी जतन में कटती है जिन्दगी
अपनो को खोने का एहसास लिए
पर आज भी जब मैं उस

बूढ़े पेड़ को देखता हूं
मुझे उसमे नित नया जीवन नज़र आता है
अंकुरित होती हुई निमकौरियां
पल्लवित होती नवीन शाखायें
इतना खोने पर भी
नित नया जीवन
टूटी हुई शाखाओं के रुण्डों में
हरियाली देखी मैने
इस बरसात में
क्या इतना कठिन है जीवन
जिसे प्रकृति की हज़ार चोटे भी
बोझिल नही कर पाती
यह संघर्ष
जो सिर्फ़ जीने के लिए है
इतना अटल
कुछ-कुछ अमरत्व लिए
क्या जीवन कभी नष्ट नही होता
होता भी है तो क्या रूप बदलते है!

वह बूढ़ा वृक्ष
मुझे नवीनता देता है
हर बरस
पर मुझे याद दिला जाता है
सदियों का जीवन
और जीवन का सत्य

(मैं इन भावनाओं को अपने पुरखों को समर्पित करता हूँ। )
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कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
खीरी
९४५१९२५९९७

Thursday, May 20, 2010

मातृत्व

मातृत्व


 रात अपने उतार पर थी
रेलवे स्टेशन कुछ अलसाया सा कुछ सो कुछ जाग रहा था
मानो बस अब सोने को है


कुछ लोग चहलकदमी कर रहे थे
शायद यात्रा पर हो

कुछ सो रहे थे
कुछ गायें भी स्टेशन पर बैठी
पागुर कर रही थी
गायों की उपस्थिति
मुझे एहसास करा गयी सर्वहारा की व्यथा
एक संयोग,
शहरी गायों और भिखारियों की व्यथा कुछ एक सी थी
आशियाने की अनुपलब्धता
एक मात्र और अन्तिम पड़ाव रेलवे स्टेशन!
उन गायों के साथ एक बछड़ा
बड़ा ही मुतमईन होकर पगुरा रहा था
एक ट्रेन खड़ी थी
दूसरी आने को थी
तभी बछड़ा सरपट भागा
कुछ लोगों से टकराया
फ़र्स पर रपटता फ़िर उठता
भागता, रूकने का नाम ही नही!
बस पूंछ उठाये भागा जा रहा था
मैं असंमजस में था
बछड़ा माँ जैसा करूण उच्चारण कर रहा था
अचानक ट्रेन की दूसरी तरफ़ से रम्भाने की आवाज आयी
करूण वेदना के स्वर थे
बिछड़ने के भाव थे
अब मुझे लगा कि बछड़े का मुतमईन होना
दरसल उसकी असफ़लता का परिचायक था
बछड़ा जिन गायों के बीच बैठा था
वे उसकी माँ नही थी, माँ जैसी थीं
या यूं कह ले समजाति का भाव
बछड़ा कुछ दूर ही भाग पाया था
कुछ कुत्तों ने उसे दौड़ाया
ये कुत्ते मानों रेलवे पुलिस के सिपाही हो
और भिखारियों को दौड़ा रहे हो
डण्डा भी मार रहे हो!
बछड़ा भयग्रस्त होकर भाग रहा था
और निकल गया स्टेशन से दूर
तभी पटरी  के उस तरफ़ से एक गाय की आवाज आई
वो रम्भा रही थी
मानो कुछ पाने को आतुर हो
वेदना भरी चीखे
करूण आवाजे
यह भाव विह्ललता
इधर-उधर दौड़ती
ट्रेन के डिब्बों के मध्य
से झांकती
और फ़िर चिल्लाती
मातृत्व का वह भाव
अतुलनीय था
जिसने समाप्त कर दी थी
सारी असमानतायें
मनुष्य और जानवर के मध्य की
जो मनुष्यता पर भी भारी था
बछड़ा दूर निकल गया था
दूसरी ट्रेन आ चुकी थी
यात्री ट्रेन पर सवार हो रहे थे
कुछ उतर कर स्टेशन से बाहर आ रहे थे
किन्तु गाय अभी भी रम्भा रही थी
पागलो सी दौड़ती
कभी इस ट्रेन के पार तो कभी उस ट्रेन......
ट्रेन जा चुकी थी
गाय भी थक चुकी थी’
पर असफ़ल प्रयासों का दौर जारी था
वेदना के स्वर तो धीमे हो चुके थे
वेदना की चीत्कार चरम पर थी
व्यथित भ्रमित माँ
पुत्र के विछोह में पागल
रम्भाती भागती और रूक जाती
इधर-उधर देखती और फ़िर रूक जाती
वही करूण चीत्कार
मैने बछड़े को खोजा लेकिन
रेलवे पुलिस के दर से शायद वह दूर चला गया था
मैं भी घर चला आया
रात का यह तीसरा पहर था
सूरज आने को था
सुबह जब यह मिलन हुआ होगा
तो कैसा होगा यह दृश्य
मातृत्व के उन भावों को
जिन्हे देखने से मैं वंचित रह गया था
माँ का वह प्रेम......
वह मनोरम दृष्य...........

कृष्ण कुमार मिश्र
(रचनाकाल- २१ जुलाई सन २००५)
यह कविता लखीमपुर  रेलवे स्टेशन की हसीन चाचा की दुकान पर बैठने वाले सभी मित्रों को समर्पित है, जो उन दिनों मेरी निशाचरी  गतिविधियों के सहभागी थे!