Tuesday, June 17, 2014

दयार ए हिज्र में तक्सीम हम भी हो गए...



वादों के बोझ को उठाते है रोकर
झूठ के पुलन्दे को सर पर बिठाते है।

दयार ए गैर में मेहमां बने बैठे है वो
मगर अफ़सोस गफ़लत में दयार ए ग़म बनाते है?

हमें तो खौफ है उनके अहद की रोशनाई से
बनाकर घर फिर वो मकबरे की छत बनाते है

चलो उनके दयार ए गर्ब में देखें ज़रा
वो क्या छुपाते है? हमें और क्या बताते है।

दयार ए हिज्र में तक्सीम हम भी हो गए।
दयार ए हिन्द में अब हम फ़कत कुछ गीत गाते है।

दयार ए इश्क में दाखिल हुए थे सरफरोशी से
दयार ए ग़म में हम अब सभी से मुहं छुपाते हैं।

दयार ए हक़ में झूठे लोग बैठे थे।
दयार ए उम्र में अब खुद को हम कमजर्फ पाते है।

बुनियाद के पत्थर को मारते है ठोकर
ऊंची इमारत के आगे सर झुकाते है। 

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

Saturday, June 14, 2014

किसी को दर्द बांटना है यारों....


वफ़ा के मायने बदल गए यारो
दर्द अब शौक बन गए यारों

आरजुएं है सिर्फ कुछ पल की
इश्क अब खेल बन गए यारों

किसी को वक्त काटना है
किसी को दर्द बांटना है यारों

न रहनुमाई है न साफगोई है
लोग अब झूठ बन गए यारों

आदमी मिलकियत है हरम में उनके
रस्म ओ रिवाज़ अब खो गए यारों

चमन के फूल भी अब किराए के है
बीज माली भी अब गुजर गए यारों

ख्वाइशें भी खरीद लेते है लोग
कुछ झूठ कुछ फरेब से यारों।

किसे कहे मुस्तकिल है अपने वादों पर
यहाँ पल में दिल को बेंच लेते है यारों

गुजिस्ता दौर था जब किस्सा ए इश्क मौजू था
अब हर रोज फसानों के किरदार बदल जाते है यारों

मौसमी इश्क भी हो गया है अब
शहर बदले नए लोग मिल गए यारों

बड़ी बातें बड़े वादों का तरन्नुम है जुबा पर
फर्श पर आकर बदल गए है वो लोग यारों

इश्क के बाज़ार? में जाना मुनासिब है नहीं
यहाँ तलबगार नहीं सब खरीददार है यारों

कृष्ण कुमार मिश्र (सस्ती नज़्म)

प्रश्न? अब यक्ष प्रश्न है!....


प्रश्न
जो प्रेम से गुथे थे
इच्छाओं से वशीभूत थे
कल्पनाओं के घोड़ों पर सवार थे
रश्मि रथियों के साथ
सदियों की उत्कंठाओं
लालसाओं
से सुसज्जित
वो प्रश्न
जो थे आक्षेपित तुम पर
उपेक्षित कर दिए तुमने
लौटाया नहीं कुछ भी
प्रति उत्तर भी नहीं
उत्तर की अभिलाषा
सुदूर पूर्व से उगने वाले सूरज के साथ
उगती और सुदूर पश्चिम में नष्ट हो जाती
रोज दर रोज
मन की विकलता
अधीरता
और आक्रोश
आकाश में सूरज के चढ़ने और उतरने के साथ
पारे की तरह चढ़ती गिरती ह्रदय की गतियाँ
मनोदशाओं का ये जाल
झकझोर जाता
समय की रफ़्तार में
तुम्हे पाते खोते
एक नाविक की तरह
जल तरंगे ले जाती कही दूर
कही पास
मृगमरीचिका सा दृश्य है
प्रश्नों के उत्तर में
चलता हूँ कुछ कोस रोज चलता हूँ
सुदूर पूर्व में
नियति फिर धकेलती है उत्तर दक्षिण
सभी दिशाओं में
मन व्यग्रता की सीमाए तोड़ रहा है
ह्रदय अब नहीं होना चाहता कंपित वेग से
मष्तिष्क थक चूका है इस उधेड़बुन से
मन जो कभी नहीं रुकता?
ठहरना चाहता है
विश्राम की मुद्रा में खड़े मन को देखता हूँ
बरबस मुस्कान आ जाती है चेहरे पर
सोचता हूँ
मैं भी ठहर ही जाऊं
सब तो थक गए है
मन
मस्तिष्क
ह्रदय
हारे हुए से
मौन
चलो चले
अब उन परिचित पगडंडियों पर
जिन्हें बचपन से जानता हूँ
उन वनों में
बगीचों में
उन वृक्षों के पास
जो परिचित है मेरे
मेरे पूर्वजों के भी
सदियों से नाता है जिनसे
इस नए अनिश्चित गठबंधन ने
मोड़ दिया था पगडंडियों से दूर
बड़े रास्तों पर
जहाँ सब अपरिचित है सबके
अनजाने सफ़र की और
जहाँ संवेदनाओं की दुकाने भी नहीं
जो खरीद लेता...कुछ मोल भाव करके
जहां अनुराग आवश्यकता के रूप में है
जिसकी अदला बदली होती है
समय समय
अब प्रश्न
अनुत्तरित है
नियति अक्षम
प्रश्न?
अब यक्ष प्रश्न है!
कृष्ण कुमार मिश्र (13 जून 2014-लखीमपुर खीरी)

जो ईश्वर की प्रतिलिपि थे...



आज कुछ लोग मिले थे
अतीत के साक्षी
छेड़ दिए तार जिनने उनके
जो खो गए हैं
कही दूर
सपनों की तरह
जिनकी बाहों में खेला
जिनकी छाव में पला
जिनकी नजरों में रहा
पालन हारे थे जो
जिनसे सीखा
दुनिया के ये दस्तूर
जो ईश्वर की प्रतिलिपि थे
आज खोजता हूँ
उन्हें क्षितिज के उस पार
अपने आस पास
अतीत में
अपने बचपन में
पर अब नहीं मिलते वो कही
आँखे बरस जाती है
बार बार
ह्रदय कम्पित होता द्रुतगति से
छाती फटती सी है
बस वो चेहरे
धूमिल से नजर आते है
कुहासे के बीच
सूरज की किरने
उड़ा ले जाती है उन्हें कुहासे के साथ
अनंत में कही दूर
पर यादें है आती है
बार बार
मन में घुमड़ते है चक्रवात
तड़प की पराकाष्टा
बोध विवेक और ज्ञान
सब शून्य होते है
बचता है तो केवल अतीत
जो खो चुका
पर साथ साथ है
अंत तक
स्वयं के निर्वाण तक
अतीत की ये दुःख भरी मिठास
चलती है नेपथ्य में
वेदना की पीठ पर
पीड़ा के भीतर
अंतिम पड़ाव तक
मनुष्य के गंतव्य में
कथित मोक्ष तक।

कृष्ण कुमार मिश्र

जहां प्रेम के फल नहीं लगते!...


एक रोज कहा था मैंने
तुम्हें याद है?
उस प्रेम के दरख़्त के बावत
जब उसके फल पक जाए
तब आना तुम!
खिलाऊंगा वो प्रेम के फल
उसकी सुगंध सुवासित कर देगी मन को
और स्वाद तृप्त कर देगा क्षुधा को
क्षुधा जो सदियों से है
तुम्हारे मन में
जिससे विरक्त नहीं हो सकती तुम
कोई न हो सका
क्षुधा न हो
तो मनुष्य भी न पके फल की तरह
परिपक्वता की डोर है ये
और पकना तो पड़ाव मात्र है जीवन में
जीवन के एक पड़ाव को हासिल कर लेने जैसा
रिश्ते फल जीव
सभी को पकना है
यह उर्ध्वता है
अधोगति नहीं
किन्तु पकना है तुम्हें
हमें भी
पहुंचना है
उस छोर के अंत में
जहां आगे कुछ नहीं
इस पूर्णता में
समय की मर्यादा भी है
जिसे मानती है प्रकृति
हमें भी मानना होगा
पकने में समय की मर्यादा
परिक्वता को पाने की समय की मर्यादा
मर्यादा खंडित होगी
तो सडन हो जायेगी इस परिपक्वता में
सड़ना तो अंत का संकेत है।
अंत तो अंतहीन है
जो पूर्णता को
छिन्न करते हुए
ले जाएगा अनंत में
जहां अणु विखंडित हो जाते है
विखर जाते है विभिन्न रूपों में
जल में
वायु में
अग्नि में....
जहां विभेद असंभव
जोड़ना अकल्पनीय
एक जीवन की कथा
मुकम्मल होकर
बिखरने तक
अंतहीन राहों पर
जहां प्रेम के फल नहीं लगते!...

कृष्ण कुमार मिश्र

जहां बंटती है कामनाएं....


नेपथ्य से
उसे निहारना
स्नेहिल आँखों से
कामनाओं के तरकश से
तीरों को निकालना
फिर चढ़ा देना
प्रेम के धनुष पर....
अब वे स्वतंत्र है
हवा पर सवार
नुकीले तीर
प्रेम की अग्नि में बुझाए हुए
लालसाओं को लादे हुए
नेपथ्य से दूर
कमान के नियंत्रण से विमुख
हवा के झोकों के मध्य
लक्ष्य से अलाहिदा
भौतिकी के नियमों से परे
सवेंग आवॆग त्वरण से भिन्न
कर्म से भाग्य को चीरते हुए
सुदूर किसी अनजाने लक्ष्य को भेदते हुए
कामनाओं के तरकश से निकले ये बाण
इच्छित अनिच्छित को गौड़ कर देते है
नेपथ्य से निहारता है वो
ठगा हुआ सा
विद्या की निपुणता पर क्षोभ करता हुआ
लक्ष्य को भेद देने के टूटते अहम् को
भौतिकी के नियमों को
कर्मवाद के सिद्धांतों को
देखता है वो छिन्न भिन्न होते हुए
नेपथ्य से
सोचता है वो
नीयति को
ईश्वर को
संसार के नियमों से अलग
स्वयं को पाता है
नेपथ्य में
असहज और अप्रासंगिक
वह सोचता है
नेपथ्य से...
स्वयं को पाता है
आभासी नेपथ्य में
कल्पित मंच को
स्वप्निल कामनाओं को
आभासी तीरों को
झूठे धनुष को...
वह चलता है
बोझिल कदमों से
उस नेपथ्य की ओर..
जहाँ से संचालित होती है
कर्म और भाग्य की कहानियाँ
जहां बंटती है कामनाएं
सुदूर क्षितिज की ओर...
नेपथ्य से नेपथ्य में
विलीन होता हुआ...
सूर्य की तरह...
वह ....
नेपथ्य में...


कृष्ण कुमार मिश्र(25मई 2014)

उस चिड़िया के गीतों में...



वक्त के नसीब से
खुद को जोड़ता हुआ आदमी
तमन्नाओं का बोझ लिए फिरता है
आरजूएं थिरकती है उसके मन-आँगन में
ख्वाईशें पनपती है उसके ह्रदय में
उगते है तमाम बीज ख़्वाबों के?
बिना खाद के बगैर पानी के
वह सींचता है उन ख़्वाबों को सिर्फ मन की मुरादों से
कही ख़्वाब उगते है क्या
लेते है शक्ल क्या ऊँचे दरख़्त की
और क्या लगते है डालियों में फल
और अगर ऐसा होता है
तो जरूर चहचहाती होगी तमाम चिड़ियाँ
उस दरख़्त की डालियों पर
पर ख़्वाब तो ख़्वाब है
वो उगते भी है
दरख़्त भी बनते है
पर उन्हें सींचना होगा
पसीने से
देनी होगी म्हणत की खाद
सिर्फ परिकल्पनाओं से नहीं
न ही मुरादों से
कर्म की उंगली पकड़
अब बढेगा ये दरख़्त
और बनेगा
इक घोसला
उस चिड़िया का
जो सदियों से नीड़ की आस में है
फिर तब वक्त का नसीब
घुल जाएगा
उस चिड़िया के गीतों में

कृष्ण कुमार मिश्र(23/24 मई 2014)

जिसकी मूल है अद्वैत में...



।।नई कविता।।
प्रेम पावक है
शीतल भी
रौद्र है
सुन्दर भी
अनंत है
समीप भी
कितने रूपों से गढ़ा है ये भाव
प्रेम
सभी रसों से
सभी भावों से
शास्त्रों से
संगीत से
युद्ध से
मित्रता से
सना हुआ है
प्रेम
वीभत्स भी है
कोमल भी
कलुषित भी है
और गर्वित भी
बोध में अबोध भी
किञ्चित में अन्किचित भी
जड़ से चेतन तक
प्रेम ही प्रवाहित है
अंत से अनंत तक
इंसान से भगवान् तक
कैसे करू परिभाषित
इस तत्व को
जो बिखरा है
द्वैत से अद्वैत तक
सोचता हूँ
स्वयं को
भूलूँ
उसे स्मरण करूँ
जो अनादि है
अनंत है
अद्वैत है
जहाँ से फूटती है धार
इस रस की
जो जन्मा है द्वैत में
जिसकी मूल है अद्वैत में
जो निरंतर है
सृष्टि में
शिव है
सुन्दर है
और सत्य भी
प्रेम
कृष्ण कुमार मिश्र (21 मई 2014)

"प्रेम पथिक" (नई कविता)



खंडित धारणाओं से
खंडित मनोभावों से
खंडित इच्छाओं से
प्रेम की डगर पर
पथिक सोचता है
प्रेम तो फिर भी विखंडित है!
आंशकाओं से
दुराग्रहों से
कलुषित कामनाओं से
हर क्षण अविश्वास से
नहीं टूटता प्रेम का तार!
पथिक सोचता है
चलता है
क्षितिज की और
लांघ जाना चाहता है
क्षितिज के पार
पहुंचना चाहता है
अपनी परिकल्पनाओं की मंजिल तक
व्यग्रता से
क्रोध से
करुणा से
स्नेह से
अधीरता से
चलता है वो
बिना विश्राम के
पथिक सोचता है
क्यों नहीं दीखते
राह के पत्थर
वृक्ष
पुष्प
लताएँ
और राहगीर
कुछ स्मृति है उसे तो
अनंत में स्थापित लक्ष्य की आस
पथिक सोचता है
विस्मृत क्यों है सारा जगत
तुच्छ क्यों है सारे लक्ष्य
महत्वहीन क्यों है
सब जड़ चेतन?
सब निरुत्तर सा है क्यों
शायद क्षितिज के पार
जवाब स्थापित हो कही
काल के लौह मस्तक पर
नियति की गोद में
शिव की जटाओं में
काबा के मंदिर में
पथिक सोचता है!
नित क्षण
निश्चित आवेग से
निश्छल भाव से
अगाध प्रेम से
बढ़ता जा रहा है
अनंत में
नियति की गोद में
....
आशाओं के घोड़ों पर
उल्ल्हास के चाबुक से
सत्य की लगाम से
बढ़ता जा रहा है...

पथिक सोचता है....

कृष्ण कुमार मिश्र (20मई 2014)

ऐसा होता तो कृष्ण भी न रोता....

तुम मिली तो लगा 
खुद से रूबरू हुआ हूँ।
तुम बोली तो लगा
 अपने ही अल्फाजों से बावस्ता हुआ हूँ
तुम्हारे हर अंदाज़ में कुछ मेरा
 कुछ खोया सा वापस मिला है
वैसे तो ये एहसास है
बड़े नाकिश है
कुछ भी बुन लेते है 
दिमागों की डलिया में दिल की धुनक से!
दर्द के कटोरे में प्रेम की डली से
मिठास कायम रखते हुए
ये एहसास ...
खारे पानी की बूंदों को ढुलका देते है
जमीनों पर
ये बूँदे अंकुरित नहीं कर सकती बीज
हाँ विध्वंश अवश्य कर सकती है
अंकुरित होती नवीनता को
अपनी क्षारीयता से?
एहसास तो एहसास है
टिकना इनकी सिफत कहाँ?
कभी चेहरों को खिलाते
कभी मायूस कर देते
हर पल खेलते है ये
हर परिस्थिति में
बिना ठहरे हुए
मानव वृत्तियों को
उकेरते चेहरों की किताबों पर
बहुत कुछ लिखते
और मिटा देते
एक पल में
इस अस्थिरता को बाँध सका है
कोइ?
एहसासों की लगाम कस सका है कोइ?
काश ऐसा होता
मन स्थिर हो जाता
दिमाग चलता अपनी गणित के नियमो से
वेग उद्वेग क्रोध आक्रोश 
उत्कंठा प्रेम अधीरता और लालसाएं
ख़त्म हो जाती
फिर कुछ भी न हर पल लिखा जाता
न मिटाया
चेहरों के पन्ने कोरे होते...
एहसास बड़े नाकिश है....
ये सच है
नहीं बख्सते किसी को
ऐसा होता तो कृष्ण भी न रोता
गांधारी के आगे
उस श्राप के परिणाम के एहसास से
मन को गिरफ्त में करने वाला
मन की उपज को नहीं कर सका नष्ट
वृत्ति तो वृत्ति है
आदमी नहीं रोक सकता इसे
वेद से
शास्त्रों से
योग से
कदापि नहीं

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

लम्स हाथों का मेरे याद तो आता होगा...


सियासत आज फिर से मायके में रो रही है।
कि बाज़ी किस जुवारी के घर ले जाएगी उसको। 

आरजू तुमसे कोई ख़ास नहीं खुद से शिकायत है मुझको।
बस मेरे दर्द के घर में कुछ उम्दा पैबंद लगा दो तुम।

तुम्हे भूला नही अब तक वजह बस बाखुदी की है।
खुद को भुलाने से तुम्हे तो याद रखना ही अच्छा है।

चलो चलते है बहारों के उस खूबसूरत घर में
जहाँ के दरीचे तुम्हे दुनिया की असलियत को दिखलायेंगे।
 

तुम थी तो सभी फूलों के रंग बड़े चटक हुआ करते थे।
जिनकी सीरत में न था महकना वो भी महका करते थे।
 

तुमने इंकार किया तो रात के पहलू में आ गया।
ग़र तुम अब मिली भी तो ये रात से बेवफाई होगी।
 

उसके नीलस्याही ख़याल ने मुझे इतना मशरूफ कर दिया।
मैं मैं न रहा वो वो न रही बस अहद में इक अक्स रह गया।
 

ये कुदरत है खिला कर फिर जमीदोज़ कर देगी।
नए अक्सों नए रंगों में तुमको फिर से गढ़ देगी।
 

चटकना है तो बिखरना लाजमी है।
फिज़ा में फिर से खिलना मौसमी है। 

ताल्लुक चटक जाए तो समझो वक्त पूरा हो चुका है।
कुदरत भी तो फल को चटकाती है पक जाने के बाद! 

ये तेरी मोहब्बत का रक्स है या मेरी दीवानगी का।
फ़ितना ए हश्र मालूम था फिर भी डूबते गए।
 
 
 

तुमसे मुतालिक सोचता हूँ तो तुम मैं होती हो।
अब बताओ तुम्हे भूलूँ या खुद को याद करूँ।
 

मेरे इश्क का नसीब बड़ा ही मुस्तकिल था।
हज़ार कोशिशे भी रुख़ न बदल सकी।
 

हमीं सद्रे ए इल्म हमीं हाकिम अदब के है
मगर कमजर्फ हमको आँकता खुद की नज़र से है।

बड़े बेमुरब्बत है बड़े शहरों के वे लोग।
मोहब्बत को फ़कत वे तमाशा ही समझते है।

उसी ने इश्क के परचम पे मेरा नाम लिक्खा था।
उसी ने परचम को कफ़न में तब्दील कर डाला।

लम्स हाथों का मेरे याद तो आता होगा।
आइना जब भी तुम्हे तुम को दिखाता होगा।

सपनों की बुनियाद पर रखी थी नीवं हमने।
इमारत क्या कभी ख़्वाबों पे टिकती है। 

इश्क की दुश्वारियों का क्या कहे कृष्ण।
लम्हा लम्हा आँखों में समंदर घुमड़ जाते है।

बड़ा ही मुतमईन था उसके अहद से।
मगर इश्क में कोइ अहद टिकता कहाँ है।

मुझे मालूम था मोहब्बत की सिफ़त तो इंकलाबी है।
मगर उसने मोहब्बत की तो सीरत ही बदल डाली।

उनका आना जाना मेरे दयार में हवादिसों की मौजें थी।
कभी बर्क ए हावादिस तो कभी कोह ए हवादिस थी। 

दयार ए हिज्र में हूँ ये गुमराह तमन्नाओं का सिला है।
दयार ए गैर में जो गए थे इश्क की फ़रियाद लेकर।

इस कमजर्फ आरजू के खातिर जुस्तजू की हमने
उनकी कवायद फकत दिल को बहलाने की थी।
 

अहद ए इश्क में कितने फ़साने गढ़ गए।
अहद ए हाल में अब कुछ समझ आता नहीं।

अहद-शिकन का अंदाजा नहीं था उससे ।कृष्ण।
वरना हम तोड़ने वालों से नाता कम बनाते हैं।

बड़े बेखौफ थे हम इश्क की कारस्तानियों से।
वाकिफ हुए तो हर चीज़ से खौफ़जदा हूँ अब।

तेरे रुखसार पे मेरे हाथों का सरकना।
हथेली पर तेरे चेहरे की छाप दे गया।
 
 
 
 
  

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"