Sunday, April 13, 2014

चलो छोड़ो अब इस झूठ के ताल्लुक को ही जारी रखिए...




इस मखमली गुलाब को जब हरियाली के दरीचे से झांकते देखा.
ला मुहाला उस नाज़मीन का चेहरा मेरे तसव्वुर में आ गया. 


हमारे नसीब में अश्कों की इक लम्बी दास्ताँ है।
आज सपने में मिले भी तो रोये बहुत थे हम।


इमारत बन नहीं पाई इबारत लिख गयी पहले।
यही बाकी निशाँ है आज कल के शाहजहाँओ का। 


जिन्हें मालूम नहीं रंगों की तासीर।
वे हाथों में कुछ बेजान से रंग लिए फिरते हैं।


रंग तो आफताब से है जिनकी एहसासों से शनासाई है।
संग ए दिल को खबर ही क्या की रंगों की बहार आई है।


तुम रोये तो मैं समंदर हो ग़या तुम हँसे तो मैं सीप बन गया।
फर्क अश्क ने बयाँ किया कभी खारी बूँद तो कभी गुहर हो गया।


बड़े फ़क्र से सब सालिम कहा करते थे मुझे।
लौटा जब तेरे पास से तो टुकड़ों में वजूद था मेरा।


ख़्वाबों का क्या वो तो कुछ भी देख लेते है।
कभी खुशी तो कभी दर्द के संग हो लेते है। 


जुदा होने की रस्मों के उस बेदर्द मंजर ने तड़पाया बहुत था।
आज सपने में मिले उससे तो खौफ ए जुदाई ने रुलाया बहुत था।


झूठ की आड़ में कितने गढ़े किस्से तुमने।
चलो छोड़ो अब इस झूठ के ताल्लुक को ही जारी रखिए।


नस्ल दागी है जहन पाक नहीं तो कोई बात नहीं।
सिलसिला फ़रेब ए मोहब्बत का तो ज़ारी रखिए।


कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

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