Friday, February 7, 2014

तूने जब हाथ छुडाया तो भनक भी न लगी...




मैं न भूला तुझे न तेरी आशनाई को।
इम्तहां लेना हो तो तेरी राहों में मिले गड्ढों की तादाद गिना दूं। 



उन दरख्तों से बड़ी हमदर्दी सी हो गयी है।
जो तेरे घर की राहों में मुझे मिलते थे।



शायरी झूठ नहीं पर सच भी नहीं है मेरी।
तेरे जाने से फकत अब धूल ही है राहों में।



तेरे शहर के गुलाबी मौसम की कसक।
तुझे पहले की तरह याद करा जाती है ।



उन नजारों की नज़र आज भी इंतज़ार करती है।
तुम्हारा मेरा वो जगह अब भी इंतज़ार करती है। 



तेरी फितरत तो थी कई हमराह बनाने की।
एक हम थे जो तुझे ही मुस्तकबिल बना बैठे थे। 



तुझे चाहा था खुदा को भी इतर रखकर।
तूने तो हम दोनों की तहोबाला कर दी।



मुतमईन था मैं तेरे साथ को हासिल करके।
तूने जब हाथ छुडाया तो भनक भी न लगी।



तेरे पहलू में सुकूँ की आरजू थी हमें।
तूने खराब वक्त में दामन छुडा लिया। 



उसके पहलू में अजीब सी दिलकशी थी।
दामन पकड़ के सोया था सुबह वह ही नदारत थी। 



मेरे माथे पे इक निशाँ जो मुस्तकिल हो गया.
ये तेरे प्यार की इक पुख्ता निशानी है. 



उसने यूं गर न तोड़ा होता मुझको.
तो दुनिया की मुझे यूं न जरूरत होती, 



कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"















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