Friday, February 7, 2014

दरमियाँ इनके अब वो खूनी लकीरे गढ़ रहा है....



हम है बाशिंदे जमीं के इस पे शक हो रहा है 
तरक्की के लिए इंसान बहसी हो रहा है

धरती की पैदाइश है फिर भी बाँझ उसको कर रहा है 
भूल कर अल्लाह को खुद ही खुदा वो हो रहा है 

उन दरख्तों उन परिंदों जिनसे साझा था कभी 
दरमियाँ इनके अब वो खूनी लकीरे गढ़ रहा है 

सब का बराबर हक था उसकी हर नियामत पर 
अब तो बस सब कुछ जबरियन आदमी ही ले रहा है 

कत्ल कर डाला सभी को सदियों से जो इसके साथ थे 
जो बचे उनको भी ऐयाशी की खातिर बस गुलामी दे रहा है 

न रंज है न अफ़सोस है इनको अपनी हरकतों पर
खुद से खुद को दरअसल इंसान धोका दे रहा है 

रफ्ता रफ्ता वक्त आता जा रहा है क़यामत का 
जिसे उसने(ईश्वर) नहीं भेजा अभी इंसान दस्तक दे रहा है 

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

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