Saturday, June 14, 2014

जिसकी मूल है अद्वैत में...



।।नई कविता।।
प्रेम पावक है
शीतल भी
रौद्र है
सुन्दर भी
अनंत है
समीप भी
कितने रूपों से गढ़ा है ये भाव
प्रेम
सभी रसों से
सभी भावों से
शास्त्रों से
संगीत से
युद्ध से
मित्रता से
सना हुआ है
प्रेम
वीभत्स भी है
कोमल भी
कलुषित भी है
और गर्वित भी
बोध में अबोध भी
किञ्चित में अन्किचित भी
जड़ से चेतन तक
प्रेम ही प्रवाहित है
अंत से अनंत तक
इंसान से भगवान् तक
कैसे करू परिभाषित
इस तत्व को
जो बिखरा है
द्वैत से अद्वैत तक
सोचता हूँ
स्वयं को
भूलूँ
उसे स्मरण करूँ
जो अनादि है
अनंत है
अद्वैत है
जहाँ से फूटती है धार
इस रस की
जो जन्मा है द्वैत में
जिसकी मूल है अद्वैत में
जो निरंतर है
सृष्टि में
शिव है
सुन्दर है
और सत्य भी
प्रेम
कृष्ण कुमार मिश्र (21 मई 2014)

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