Saturday, June 14, 2014

ऐसा होता तो कृष्ण भी न रोता....

तुम मिली तो लगा 
खुद से रूबरू हुआ हूँ।
तुम बोली तो लगा
 अपने ही अल्फाजों से बावस्ता हुआ हूँ
तुम्हारे हर अंदाज़ में कुछ मेरा
 कुछ खोया सा वापस मिला है
वैसे तो ये एहसास है
बड़े नाकिश है
कुछ भी बुन लेते है 
दिमागों की डलिया में दिल की धुनक से!
दर्द के कटोरे में प्रेम की डली से
मिठास कायम रखते हुए
ये एहसास ...
खारे पानी की बूंदों को ढुलका देते है
जमीनों पर
ये बूँदे अंकुरित नहीं कर सकती बीज
हाँ विध्वंश अवश्य कर सकती है
अंकुरित होती नवीनता को
अपनी क्षारीयता से?
एहसास तो एहसास है
टिकना इनकी सिफत कहाँ?
कभी चेहरों को खिलाते
कभी मायूस कर देते
हर पल खेलते है ये
हर परिस्थिति में
बिना ठहरे हुए
मानव वृत्तियों को
उकेरते चेहरों की किताबों पर
बहुत कुछ लिखते
और मिटा देते
एक पल में
इस अस्थिरता को बाँध सका है
कोइ?
एहसासों की लगाम कस सका है कोइ?
काश ऐसा होता
मन स्थिर हो जाता
दिमाग चलता अपनी गणित के नियमो से
वेग उद्वेग क्रोध आक्रोश 
उत्कंठा प्रेम अधीरता और लालसाएं
ख़त्म हो जाती
फिर कुछ भी न हर पल लिखा जाता
न मिटाया
चेहरों के पन्ने कोरे होते...
एहसास बड़े नाकिश है....
ये सच है
नहीं बख्सते किसी को
ऐसा होता तो कृष्ण भी न रोता
गांधारी के आगे
उस श्राप के परिणाम के एहसास से
मन को गिरफ्त में करने वाला
मन की उपज को नहीं कर सका नष्ट
वृत्ति तो वृत्ति है
आदमी नहीं रोक सकता इसे
वेद से
शास्त्रों से
योग से
कदापि नहीं

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"

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