Saturday, June 14, 2014

जो ईश्वर की प्रतिलिपि थे...



आज कुछ लोग मिले थे
अतीत के साक्षी
छेड़ दिए तार जिनने उनके
जो खो गए हैं
कही दूर
सपनों की तरह
जिनकी बाहों में खेला
जिनकी छाव में पला
जिनकी नजरों में रहा
पालन हारे थे जो
जिनसे सीखा
दुनिया के ये दस्तूर
जो ईश्वर की प्रतिलिपि थे
आज खोजता हूँ
उन्हें क्षितिज के उस पार
अपने आस पास
अतीत में
अपने बचपन में
पर अब नहीं मिलते वो कही
आँखे बरस जाती है
बार बार
ह्रदय कम्पित होता द्रुतगति से
छाती फटती सी है
बस वो चेहरे
धूमिल से नजर आते है
कुहासे के बीच
सूरज की किरने
उड़ा ले जाती है उन्हें कुहासे के साथ
अनंत में कही दूर
पर यादें है आती है
बार बार
मन में घुमड़ते है चक्रवात
तड़प की पराकाष्टा
बोध विवेक और ज्ञान
सब शून्य होते है
बचता है तो केवल अतीत
जो खो चुका
पर साथ साथ है
अंत तक
स्वयं के निर्वाण तक
अतीत की ये दुःख भरी मिठास
चलती है नेपथ्य में
वेदना की पीठ पर
पीड़ा के भीतर
अंतिम पड़ाव तक
मनुष्य के गंतव्य में
कथित मोक्ष तक।

कृष्ण कुमार मिश्र

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