Saturday, June 14, 2014

लम्स हाथों का मेरे याद तो आता होगा...


सियासत आज फिर से मायके में रो रही है।
कि बाज़ी किस जुवारी के घर ले जाएगी उसको। 

आरजू तुमसे कोई ख़ास नहीं खुद से शिकायत है मुझको।
बस मेरे दर्द के घर में कुछ उम्दा पैबंद लगा दो तुम।

तुम्हे भूला नही अब तक वजह बस बाखुदी की है।
खुद को भुलाने से तुम्हे तो याद रखना ही अच्छा है।

चलो चलते है बहारों के उस खूबसूरत घर में
जहाँ के दरीचे तुम्हे दुनिया की असलियत को दिखलायेंगे।
 

तुम थी तो सभी फूलों के रंग बड़े चटक हुआ करते थे।
जिनकी सीरत में न था महकना वो भी महका करते थे।
 

तुमने इंकार किया तो रात के पहलू में आ गया।
ग़र तुम अब मिली भी तो ये रात से बेवफाई होगी।
 

उसके नीलस्याही ख़याल ने मुझे इतना मशरूफ कर दिया।
मैं मैं न रहा वो वो न रही बस अहद में इक अक्स रह गया।
 

ये कुदरत है खिला कर फिर जमीदोज़ कर देगी।
नए अक्सों नए रंगों में तुमको फिर से गढ़ देगी।
 

चटकना है तो बिखरना लाजमी है।
फिज़ा में फिर से खिलना मौसमी है। 

ताल्लुक चटक जाए तो समझो वक्त पूरा हो चुका है।
कुदरत भी तो फल को चटकाती है पक जाने के बाद! 

ये तेरी मोहब्बत का रक्स है या मेरी दीवानगी का।
फ़ितना ए हश्र मालूम था फिर भी डूबते गए।
 
 
 

तुमसे मुतालिक सोचता हूँ तो तुम मैं होती हो।
अब बताओ तुम्हे भूलूँ या खुद को याद करूँ।
 

मेरे इश्क का नसीब बड़ा ही मुस्तकिल था।
हज़ार कोशिशे भी रुख़ न बदल सकी।
 

हमीं सद्रे ए इल्म हमीं हाकिम अदब के है
मगर कमजर्फ हमको आँकता खुद की नज़र से है।

बड़े बेमुरब्बत है बड़े शहरों के वे लोग।
मोहब्बत को फ़कत वे तमाशा ही समझते है।

उसी ने इश्क के परचम पे मेरा नाम लिक्खा था।
उसी ने परचम को कफ़न में तब्दील कर डाला।

लम्स हाथों का मेरे याद तो आता होगा।
आइना जब भी तुम्हे तुम को दिखाता होगा।

सपनों की बुनियाद पर रखी थी नीवं हमने।
इमारत क्या कभी ख़्वाबों पे टिकती है। 

इश्क की दुश्वारियों का क्या कहे कृष्ण।
लम्हा लम्हा आँखों में समंदर घुमड़ जाते है।

बड़ा ही मुतमईन था उसके अहद से।
मगर इश्क में कोइ अहद टिकता कहाँ है।

मुझे मालूम था मोहब्बत की सिफ़त तो इंकलाबी है।
मगर उसने मोहब्बत की तो सीरत ही बदल डाली।

उनका आना जाना मेरे दयार में हवादिसों की मौजें थी।
कभी बर्क ए हावादिस तो कभी कोह ए हवादिस थी। 

दयार ए हिज्र में हूँ ये गुमराह तमन्नाओं का सिला है।
दयार ए गैर में जो गए थे इश्क की फ़रियाद लेकर।

इस कमजर्फ आरजू के खातिर जुस्तजू की हमने
उनकी कवायद फकत दिल को बहलाने की थी।
 

अहद ए इश्क में कितने फ़साने गढ़ गए।
अहद ए हाल में अब कुछ समझ आता नहीं।

अहद-शिकन का अंदाजा नहीं था उससे ।कृष्ण।
वरना हम तोड़ने वालों से नाता कम बनाते हैं।

बड़े बेखौफ थे हम इश्क की कारस्तानियों से।
वाकिफ हुए तो हर चीज़ से खौफ़जदा हूँ अब।

तेरे रुखसार पे मेरे हाथों का सरकना।
हथेली पर तेरे चेहरे की छाप दे गया।
 
 
 
 
  

कृष्ण कुमार मिश्र "कृष्ण"         

 

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