Saturday, June 14, 2014

"प्रेम पथिक" (नई कविता)



खंडित धारणाओं से
खंडित मनोभावों से
खंडित इच्छाओं से
प्रेम की डगर पर
पथिक सोचता है
प्रेम तो फिर भी विखंडित है!
आंशकाओं से
दुराग्रहों से
कलुषित कामनाओं से
हर क्षण अविश्वास से
नहीं टूटता प्रेम का तार!
पथिक सोचता है
चलता है
क्षितिज की और
लांघ जाना चाहता है
क्षितिज के पार
पहुंचना चाहता है
अपनी परिकल्पनाओं की मंजिल तक
व्यग्रता से
क्रोध से
करुणा से
स्नेह से
अधीरता से
चलता है वो
बिना विश्राम के
पथिक सोचता है
क्यों नहीं दीखते
राह के पत्थर
वृक्ष
पुष्प
लताएँ
और राहगीर
कुछ स्मृति है उसे तो
अनंत में स्थापित लक्ष्य की आस
पथिक सोचता है
विस्मृत क्यों है सारा जगत
तुच्छ क्यों है सारे लक्ष्य
महत्वहीन क्यों है
सब जड़ चेतन?
सब निरुत्तर सा है क्यों
शायद क्षितिज के पार
जवाब स्थापित हो कही
काल के लौह मस्तक पर
नियति की गोद में
शिव की जटाओं में
काबा के मंदिर में
पथिक सोचता है!
नित क्षण
निश्चित आवेग से
निश्छल भाव से
अगाध प्रेम से
बढ़ता जा रहा है
अनंत में
नियति की गोद में
....
आशाओं के घोड़ों पर
उल्ल्हास के चाबुक से
सत्य की लगाम से
बढ़ता जा रहा है...

पथिक सोचता है....

कृष्ण कुमार मिश्र (20मई 2014)

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